Sunday, August 10, 2014

मेरा वो बरामदा



आज मेरी उस बरामदे की खिड़की से 
झांकती हुई धूप नहीं दिखती 
आज मेरे उस बरामदे के बाहर 
छाओं का साया है 

आज मेरे उस बरामदे के बाहर 
कोई शोर नहीं सुनाई देता 
आज मेरे उस बरामदे के बाहर 
चिड़ियों की चहचाह ही सुनती है 

आज मेरे उस बरामदे के बाहर 
कोई अनचाही परछाई नहीं आती 
आज मेरे उस बरामदे के बाहर 
खिलखिलाती मुस्कराहट है 

आज शायद उस बरामदे के बाहर 
पहले जैसा कुछ नहीं है 
लेकिन आज जैसा है 
उसमें उदासियों का सबब नहीं है 

वक़्त ही जानता है 
की हमने कुछ खोया 
या हमने पाया है 

अपनों को न छलने 
न दिल दुखाने की राह में 
हमने शायद और वक़्त लगाया है 
सही ग़लत की राह में 
लेकिन खुद को ही पाया है 

आज उस बरामदे के बाहर 
सिसकियाँ नहीं सुनाई देती 

छूटा तो है इन हाथों से कुछ 
वो वक़्त है या 
वो फिसलती हुई रेत का साया है 

बस आज उस बरामदे के बाहर 
एक सुकून भरमाया है 

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