Wednesday, June 4, 2014

वो एक पत्ती


वो उस शाख़ पर लहलहाती हुई एक पत्ती
वो उस लम्हे मैं क़ैद मेरी ज़िन्दगी

वो उस एक पत्ती पर अटकी हुई मेरी ज़िन्दगी
वो अधूरी दास्तां की मुक़म्मल ज़िन्दगी

वो बिना अस्तित्व के बिखरी हुई ज़िन्दगी
वो नीरसता में रंग भरती हुई पत्ती


वो कुछ न हो के भी वजूद से भरी
वो ज़िन्दगी को एक आस देती हुई कुछ सूखी, कुछ महकी सी पत्ती

वो ज़िन्दगी को ज़िन्दगी का रुख़ देती हुई
वो उस शाख़ पर अकेली लटकती हुई एक पत्ती


No comments:

Post a Comment

Freedom of womankind

Though it was formally banned in December 1829, under the Bengal Presidency by Lord William Bentinck; the free India still holds its deeper...